Friday, December 17, 2010

ओबामा का भारत दौरा - भारत ने क्या खोया, क्या पाया

राजीव राय (लेखक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए और हमारा मीडिया उनके आगे बिछ गया. जाहिर है अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा हमारी मीडिया के लिए एक बड़ा इवेंट है,लेकिन मेरे विचार से बराक ओबामा को लेकर मीडिया कवरेज अतिरंजित था. अक्सर शोर-शराबे में असलियत दब जाती है और ओबामा की यात्रा भी इसका अपवाद नहीं है. बल्कि अगर मैं यह कहूं कि ओबामा भारत
की यात्रा करने वाले पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों में सबसे कमजोर राष्ट्रपति थे तो कतई गलत नहीं होगा. ओबामा यहां भिक्षाटन करने आए थे और एक भिक्षुक से दान करने की उम्मीद करना बेकार है. मेरे विचार से ओबामा की भारत यात्रा का मूल्यांकन इसी नजरिए से किया जाना चाहिए.
 ओबामा की यह यात्रा मित्रता के लिए कतई नहीं थी, उनकी यह यात्रा विशुद्ध रूप से कारोबारी
थी. भारत के मन में ओबामा को लेकर भले ही कई उम्मीदें रही हों, लेकिन ओबामा का मकसद एदम साफ था.यही वजह थी कि वे दिल्ली के बजाए व्यवसायिक राजधानी मुंबई उतरे और अमेरिका के लिए 400 अरब रूपये की डील करके अपना मकसद भी साध लिया. जब वह दिल्ली आए तो भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का लॉली-पॉप थमा दिया.जबकि खुद अमेरिकी अधिकारियों ने भी यह साफ कर दिया है कि आने वाले समय में सुरक्षा-परिषद के विस्तार की कोई उम्मीद नहीं है. अमेरिका सुरक्षा-परिषद में भारत की दावेदारी को कितनी गंभीरता से लेता है उसकी कलई तो हाल ही में हुए विकीलिक्स के खुलासे से हो ही गई है. खुलासे में साफ हुआ है कि हिलेरी क्लिंटन भारत की स्व-घोषित दावेदारी से काफी नाराज थी.भारत को विचार करना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा से कितनी रणनीतिक सफलता हासिल हुई.जाहिर है कि उनके लिए मुंबई ज्यादा महत्वपूर्ण था, दिल्ली तो उनकी प्राथमिकता सूची में था ही नहीं.

अब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं कि ओबामा की आखिर कौन सी मजबूरी थी, जिसकी वजह से उन्हें मुंबई जाने पर मजबूर होना पड़ा. ओबामा अमरीका को मंदी के दलदल से बाहर निकालने में तनिक भी कामयाब नहीं हुए हैं. अमरीका में बेरोजगारी की दर आसमान छू रही है और ब्यूरो आफ लेबर स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक यह दस प्रतिशत के स्तर पर कायम है. ओबामा की आर्थिक-नीतियों को लेकर अमेरिका में सवाल उठ रहे हैं और लोग गुस्से में हैं.खुद को विश्व-नागरिक कहने वाले ओबामा कभी भारत में आउटसोर्सिंग के खिलाफ जहर उगल रहे हैं तो कभी वह मुद्रा के अवमूल्यन के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. जाहिर है उनके पास न तो कोई विजन है और न ही कोई रोडमैप.

ऐसे में आखिर भारत को क्यों ओबामा से अति-आशान्वित नहीं रहना चाहिए. वह इसलिए कि
दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तरह से ओबामा की भी कथनी और करनी में भारी फर्क है.आइए, इसकी कुछ बानगी देखते हैं.ओबामा ने पिछले साल ही ऐलान किया था कि इराक और अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना हटा ली जाएगी, लेकिन वहां से सेना हटाने की प्रक्रिया में लगातार देरी हो रही है. अफगानिस्तान में शांति-स्थापित करने के नाम पर जो व्यापक नरसंहार हुआ है वह किसी से छुपा है! यही नहीं नोबल शांति सम्मान से नवाजे गए ओबामा ने उस अमेरिकी कानून में भी संशोधन करवा लिया जिसके तहत अफ्रीकी देशों को सेना में अपने देश के बच्चे शामिल करने की छूट मिल गई. इससे हिंसाग्रस्त चाड, सूडान, यमन और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक और कांगो जैसे देशों में बच्चों की स्थिति और बदतर होगी. सदी के महान विचारक नोम चोमस्की ने इसे युद्ध-अपराध की संज्ञा दी. 1928 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर ने गरीबी हटाने व देश को इतना संपन्न बनाने का वादा किया कि हर अमेरिकी की थाली में चिकेन और गैरेज में दो कार होगी. लेकिन तोहफे में मिला-सदी का सबसे भयानक द ग्रेट डिप्रेसन! लोग खाने को मुहताज हो गए. राष्ट्रपति रूजवेल्ट आखिर तक कहते रहे कि अमेरिका दूसरे विश्व-युद्ध में भाग नहीं लेगा, लेकिन उन्होंने हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराया. राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने कहा था-"रीड माय लिप्स! नो न्यू टैक्सेज.” इसके बाद वह लगातार अमेरिकी जनता को कर के बोझ से दबाते गए. पिछले राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के बारे में कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर होगा.

ओबामा के पास अमेरिका को दिखाने के लिए कुछ है?वह यह कह सकते हैं कि देखो! मैं तुम्हारे लिए भारत से 10 अरब डॉलर ओर 50000 नौकरियां लाया हूं. मंदी और बेरोजगारी से ग्रस्त देश के लिए यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है.लेकिन सवाल यह है कि मनमोहन सिंह के पास दिखाने के लिए ऐसा कुछ है? अमेरिका एक विकसित देश है और भारत विकासशील देश. भारत को इस निवेश की ज्यादा आवश्यकता थी? क्या भारत में कम बेरोजगारी है? लेकिन फिर भी ओबामा ने हमारे ही कटोरे से निवाला ले लिया. तो फिर इसमें ऐसी कौन सी इतराने वाली बात हो गई कि भारतीय मीडिया ने उनको भगवान बना दिया. क्या उन्होंने पाकिस्तान से आतंकवाद के मसले पर कुछ ठोस कहा? क्या उन्होंने आउटसोर्सिंग संबंधी अपने विचार में बदलाव के संकेत दिए? तो फिर उन्होंने ऐसा क्या कर दिया? भारत की सुरक्षा-परिषद में दावेदारी पर मुहर लगाई लेकिन ठीक उसी तरह जैसे विज्ञापनों में लिखा होता है-दो लाख में फ्लैट और उसी विज्ञापन में नीचे लिखा मिलता है-शर्तें लागू. ओबामा इस बात को बेहतर जानते थे कि पाकिस्तान अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक मदद का भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने के लिए ही इस्तेमाल करता है. लेकिन फिर भी उन्होंने बाढ़ मदद के नाम पर भारी आर्थिक मदद की. निश्चिततौर पर पाकिस्तान इस पैसे का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही करेगा.दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक पर से अमेरिका ने कुछ प्रतिबंध उठा लिए यह तो वही बात हुई कि राजीव कुमार राय ने नासा से तकनीकी हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाया.वास्तव में यह कितना हास्यास्पद है. मैं पूछता हूं कि इसरो का कौन सा काम रूका हुआ था. हम इन प्रतिबंधों के साथ ही अगले कुछ साल में चांद पर पहुंच जाएंगे. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अमेरिका के प्रति प्रेम जगजाहिर है. परमाणु समझौता से भी भारत को कितना फायदा होगा यह तो वक्त ही बताएगा. सारी दुनिया को पता है कि भारत में आतंकवाद के पीछे आईएसआई का हाथ है लेकिन ओबामा ने कोई भी ठोस आश्वासन नहीं दिया. भारत को अमेरिकी दोस्ती के बारे में जरा सा भी भ्रम नहीं होना चाहिए. अमेरिका न तो किसी का हुआ है और न होगा. जिसने भी अमेरिका को दोस्त माना उसे अमेरिका दीमक की तरह चाट गया. सद्दाम हुसैन का उदाहरण सबके सामने है. इराक-इरान युद्ध के समय अमेरिका ने इराक का साथ दिया और बाद में सद्दाम क्या हालत हुई, यह सबको पता है. आज परवेज मुशेरर्फ की क्या हालत है यह किसी से छिपी हुई है.दोस्ती में कोई हर्ज नहीं है लेकिन भारत को उम्मीद नहीं पालनी चाहिए और सतर्क रहना चाहिए.
                  

2 comments:

  1. Obama is mercenary and he is no different. However, it is India media who sits on the ground.

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