Sunday, December 12, 2010

अयोध्या मसले पर हाईकोर्ट का फैसला जजों की रूढ़िवादी मानसिकती से प्रभावित

राजीव राय (लेखक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

अयोध्या मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आ चुका है. इस फैसले से सरकार ने भले ही राहत की सांस ली हो, लेकिन हाईकोर्ट ने अपने फैसले से मिथक को सत्य बनाने की कोशिश की है. अयोध्या मामले की कानूनीपड़ताल करने से पता चलता है कि अदालत का का यह फैसला कई विडंबनाओं और विसंगतियों से भरा है. इसफैसले के साथ ही मिथकीय चरित्र युगपुरूष राम को कानूनी स्वीकृति भी मिल गई है. फैसले से यह भी साफ हुआकि भारत कितना बदल चुका है. अगर आप कभी अयोध्या गए हों और वहां के रहने वालों से वार्तालाप का मौकामिला हो तो इस बात का आप को भी एहसास हुआ होगा कि यहां मिथक और इतिहास इस तरह से गुंथे हुए हैं किदोनों को पृथकता में समझ पाना मुश्किल है.

अब जरा अदालत के फैसले का पोस्टमॉर्टम करते हैं. मुझे यह कहने में जरा झिझक हो रही है कि अदालत का फैसला धर्म और जाति की सीमा से परे नहीं उठ पाया. तीन जजों के बेंच में जस्टिस धरमवीर शर्मा ने विवादित- स्थल के एक हिस्से को राम का जन्मस्थान माना. मुस्लिम जज एसयू खान ने अपने फैसले में कहा कि विवादित स्थल पर मस्जिद थी, लेकिन इसे मंदिर तोड़कर नहीं बनाया गया था बल्कि बाबर ने मंदिर के अवशेष पर मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था. तीसरे जज सुधीर अग्रवाल ने विवादित स्थल को तीन हिस्सों में मुकदमें के तीनों पक्षकारों में बांटने का आदेश दिया. मैं जब इस पर गौर करता हूं तो पाता हूं कि तीनों माननीय जज समाज के बनाए जाति और धर्म की बेड़ियों को नहीं तोड़ सके. कितना अच्छा होता अगर जस्टिस एसयू खान का फैसला जस्टिस धरमवीर शर्मा ने दिया होता और जस्टिस शर्मा का फैसला जस्टिस खान ने दिया होता.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि जजों के फैसले से उनकी सोच में कहीं न कहीं रूढ़िवादी सोच की झलक मिलतीहै. न्यायिक तौर पर भी यह कमजोर फैसला ही है.इलाहाबाद हाईकोर्ट के पास यह साबित करने का एक बड़ामौका था कि हिंदुस्तान में अदालत ऐसी जगह है जो जाति और धर्म की सीमा से परे है. लेकिन अयोध्या मामलेकी सुनवाई करने वाले माननीय जजों ने न्यायपालिका की विश्वसनीयता बहाल करने का एक बड़ा मौका खो दिया.

इस फैसले से विवाद का अंत नहीं होगा बल्कि नए झगड़े की शुरुआत होगी. मंदिर-मस्जिद विवाद में अहम् बात यह है कि जमीन किसकी है? मुस्लिम इस देश में आक्रमणकारी के तौर पर बहुत बाद में आए. हर आक्रमणकारी की तरह उनका भी मकसद हिंदु अहम् को तोड़ना था. मस्जिद बनाने की भावना के पीछे धर्म का मकसद तो कतई नहीं था क्योंकि नमाज पढ़ने के लिए तो कहीं भी मस्जिद बनाई जा सकती थी. "मोटिव" कानून में बड़ा मायने रखता है.जाहिर है कि वहां मस्जिद बनाए जाने के पीछे धार्मिक उद्देश्य नहीं था. इस तर्क के आधार पर जमीन हिंदुओं को देनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. हकीकत यह है कि हम सच बोलने से डरते हैं.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद राजनेताओं की प्रतिक्रिया खामोशी से भरी ही रही है. लेकिन इसके पीछे उनका हृदय परिवर्तन नहीं है. बल्कि वे समझ चुके हैं कि 2010 का भारत 1992 का भारत नहीं है. यहां ज्यादा संख्या युवाओं की है जो यह समझते हैं कि उनकी पहली आवश्यकता है नौकरी और विकास, न कि मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे-फसाद. राजनेता समझ चुके हैं कि किसी भी चीज की अति बुरी होती है. उनकी खामोशी में मजबूरी की झलक मिलती है. वैश्वीकरण और उदारीकरण की वजह से लोगों को सोचने-समझने की ताकत मिली है. 1992 वाली पीढ़ी भी अब असलियत समझ चुकी है और भी अब मंदिर-मसजिद की राजनीति से दूर हो रही है.

धार्मिक प्रतीकों और पूजास्थलों पर कब्जा कोई नई बात नहीं हैं. आधुनिक भारत में भी 1948 में गांधी जी ने आखिरी उपवास 13 जनवरी से 18 जनवरी तक किया था. वजह यह थी कि दिल्ली स्थिति महरौली में हिंदुओं ने
बख्तियार चिश्ती की दरगाह को अपने अधिकार में ले लिया था. गांधीजी ने यह उपवास इसलिए किया ताकि हिंदु इसे स्थानीय-मुस्लिमों को सौंप दें.

आज भारत इतिहास, तथ्य और भावनाओं के तिराहे पर खड़ा है. बेहतर बात यह है कि भारत अब समझदार हो चला है. अयोध्या फैसले के बाद किसी तरह का उन्माद नहीं फैला. अगर कुछ गलत होता तो जाहिर है कि देश-
विदेश में भारत की बड़ी बदनामी होती, क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान पूरी दुनिया की नजर भारत पर थी.

एक और बड़ी रोचक बात है. जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे तो उस वक्त जस्टिस केएम पांडे ने 1986 में राम मंदिर का ताला खोलने का आदेश दिया था. जब अदालत का फैसला आने वाला था तो हजारों लोग कोर्ट परिसर में मौजूद थे. कोर्ट परिसर की गुंबद पर जहां झंडा लहरा रहा था वहां एक काला बंदर मौजूद था. मौजूद लोगों ने उस बंदर को फल और मेवे देने की कोशिश की, लेकिन उसने कुछ भी नहीं लिया. शाम 4 बजकर 40 मिनट पर फैसला देने के बाद जस्टिस पांडे अपने बंगले पर आए. वह बंदर उनके बंगले पर मौजूद था. जज उसे देखकर हैरान रह गए. उन्होंने बंदर को कोई दैवीय-चमत्कार मानकर प्रणाम किया. इस बात का खुलासा जस्टिस के एम पांडे ने अपनी आत्मकथा में किया है. बंदर यानी हनुमान जी की तथाकथित स्वीकृति के बावजूद कोर्ट का फैसला न्यायपालिक की निष्पक्षता पर बड़ा सवाल खड़ा कर गया. इस फैसले को एक तरह से शाहबानों फैसले के बाद हिंदु फंडामेंटलिस्ट्स को शांत करने की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की कोशिश के तौर पर देखा गया. यही नहीं जब श्रद्धालु गेट खुलने के बाद अंदर दौड़ते हुए जा रहे थे तो दूरदर्शन पर इसका सीधा प्रसारण भी किया गया. लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस बार के फैसले के वक्त वहां कोई बंदर मौजूद नहीं था. लेकिन इस बार भी कोर्ट का फैसला पिछली बार की तरह निष्पक्ष नहीं था.

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