२५ दिसबंर का दिन। मैं बलिया की अपनी उस धरती पर आया हूं, जिसका आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान रहा है। भूमिहारों के एक बहुत बड़े सम्मेलन में मुझपर इलाके के लोगों ने जो विश्वास जताया हूं, उससे मैं वाकई बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मेेरे ख्याल से कल्पनाथ राय जी के निधन के बाद से यहां पहली बार इस तरह का इतना विशाल आयोजन हुआ। जिले के १२ गांवों के बड़ी संख्या में भूमिहार भाई मेरा हौसलाअफजाई करने पहुंचे। सभी ने एक स्वर से माना कल्पनाथ राय जी के बाद से इस इलाके में जिस तरह से किसी भूमिहार नेता का राष्ट्रीय राजनीति में अभाव महसूस रहा था, उसकी कमी को मैं पूरा कर पाउंगा। मैं खुद इस जिम्मेदारी और सम्मान से अभिभूत महसूस कर रहा हूं। ये कहना चाहूंगा कि आजादी के बाद से बलिया और आसपास के इलाके या यों करें कि पूर्वांचल में कोई न कोई बड़े कद का भूमिहार नेता राष्ट्रीय राजनीति में जरूर उभरता रहा था लेकिन कल्पनाथ जी के बाद से एक डेढ़ दशक से उनकी जगह को कोई भर नहीं पाया था। ऐसे में इतनी बड़ी ऐतिहासिक रैली में हजारों भूमिहार भाइयों द्वारा मुझमें जताया विश्वास यही कहता है कि उन्हें लग रहा है कि मैं ऐसा नेता हो सकता हूं जो भूमिहार बहुल इस इलाके के साथ न्याय कर पाउंगा और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनकी लड़ाई लड़ सकूंगा। निश्चित तौर पर उन्होंने इससे पहले मेरी पृष्ठभूमि और मेरे कामों को जरूर देखा होगा, तभी उनकी उम्मीदें मुझसे आकर जुड़ी होंगी। २५ दिसंबर को बलिया में मेरे सम्मान में बाजे गाजों के साथ निकला ऐतिहासिक जुलूस अब तक मेरी आंखों के सामने लग रहा है। मुझे चांदी का मुकुट पहनाया गया, जो अब मेरे लिए मेरे भाई-बहनों, अग्रजों के सम्मान का प्रतीक रहेगा, जो तलवार मुझे भंेट की गई-उससे अगर मैं सबके आत्मसम्मान की रक्षा कर पाया तो खुद को धन्य मानूंगा।
हालांकि ये सब जितनी जल्दी हो गया, मुझे उसकी उम्मीद नहीं थी। मैने राजनीति में अपने लिए जो रोडमैप बना रखा था, उसमें मैं धीरे धीरे और मजबूती से आगे कदम बढाऩा चाहता था, लेकिन इतनी जल्दी इतना रिस्पांस मिलेगा, इस पर एकबारगी खुद विश्वास नहीं होता। जहां तक मैं सोचता हूं तो लगता है कि इतने लोग अगर मुझसे जुड़ रहे हैं तो शायद इसलिए कि मेरे विरोध में कुछ भी नहीं है, शायद ही कोई मेरे विरोध में हो। या तो लोग मेरे समर्थन में हैं या फिर तटस्थ। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा हूं, गैर विवादित हूं। हां, ये डर जरूर लगता है कि मुझसे कोई गलती न हो जाये।
अब पूर्वांचल की बात करता हूं। इस इलाके को जो मिलना चाहिए वो इतने लंबे समय में भी नहीं मिला। आजादी के साठ के बाद भी ये इलाका पिछड़ा हुआ है, न सही तरीके से सडक़ संपर्क है और न ही रेलमार्ग, न उद्योग हैं, न अच्छे स्कूल कालेज और न ही रोजगार। तकनीक शिक्षा वाले प्रोफेशनल कालेजों की कमी है। ये वही इलाका है जहां से जय प्रकाश नारायण, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, चित्तू पांडे, मंगल पांडेय, जनेश्वर मिश्र और कल्पनाथ राय जैसी हस्तियां उभरीं। उन्होंने यहां के विकास के लिए काफी कोशिशें भी कीं।
सडक़ और रेलमार्ग किसी इलाके के विकास के लिए बुनियादी आधार होते हैं, इसके अभाव में कोई भी उद्योगपति क्यों यहां आना चाहेगा, कोई भला क्यों यहां उद्योग लगाना चाहेगा-कितने दुर्भाग्य की बात है जिस इलाके ने स्वतंत्रता की लड़ाई में एक से एक सपूत दिये, जिस इलाके की भूमिका आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा थी, उसे पिछले छह दशकों में सरकारों ने केवल उपेक्षित किया है।
०९अगस्त १९४२ को जब देशभर में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा गया तो बलिया के लोग उसमें इतने आगे थे कि इसे अगस्त क्रांति के तौर पर जाना जाता है। पूरा का पूरा शहर जिस तरह से इस आंदोलन के लिए उठ खड़ा हुआ वो मिसाल तो पूरे देश में तब कहीं नहीं देखी गई। स्वतंत्रता आंदोलन में बलिया के खास योगदान के लिए अगस्त 2001 में भारत सरकार ने एक खास डाक टिकट जारी किया। एक से बढक़र एक क्रांतिकारी इस इलाके ने स्वतंत्रता संग्राम में दिये। लेकिन आज ये इलाका अपनी उपेक्षा के दंश झेल रहा है। विकास के मोर्चे पर हाल बहुत बुरा है। बलिया जैसे बड़े जिले में महज १२ डिग्री कालेज हैं, इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के केवल चार इंस्टीट्यूट। ये कृषि प्रधान इलाका है लेकिन सिंचाई सुविधाएं भी ऊंट के मुंह में जीरे सरीखी। ३१६८ वर्ग किलोमीटर के बलिया में महज ४०७ किलोमीटर की नहर है तो सिंचित क्षेत्र महज १६०००० हेक्टेयर, केवल ६७० सरकारी ट्यूबवैल। ऐसा लगता है कि मानो ये इलाका सरकार के लिए कोई मायने ही नहीं रखता।
मैं आंकड़ों के आधार पर कुछ और बातें भी कहना चाहूंगा-पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में गरीबी को लेकर सर्वे हुआ। जिसके अनुसार १९७२-७३ में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ४० फीसदी गरीबी थी और पूर्वांचल में ४२ फीसदी। इसके बाद १९८७-८८ में पश्चिमी यूपी में गरीबी का प्रतिशत घटकर २८ फीसदी रह गया तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये घटने की बजाये एक फीसदी और बढ़ गई। आंकड़े इसके भी गवाह हैं प्रदेश में विकास के लिए आने वाला धन का सबसे कम हिस्सा पूर्वी उत्तर प्रदेश को मिलता है और वो भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। तभी तो हर आने साल के साथ यहां गरीबी और पिछड़ापन सुधरने की बजाये बढ़ ही रहा है। १९९३-९४ के आंकड़ें आंख खोलने वाले हैं, इनके अनुसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में गरीबी और बढक़र ४९ फीसदी हो चुकी है। ऐसे में यहां का नौजवान रोजगार की तलाश में बाहर नहीं जाये तो क्या करे। अब हमें खुद सोचना होगा कि क्यों हमारे इलाके के लोगों को मुंबई या देश के दूसरे हिस्सों की ओर कूच करना होता है? एक सवाल और भी है क्यों पूर्वांचल को अब तक सडक़, रेल और विकास से महरूम रखा गया? बहुत हो चुका है, हम अब बाहर जाकर ठोकर नहीं खाएंगे, अब हमें नये संघर्ष के लिए खड़े होना होगा। केंद्र और प्रदेश की सरकारों को चेताना होगा- पूर्वांचल के साथ उनका सौतेला व्यवहार अब नहीं चलेगा। अब इसके लिए बड़ी लड़ाई लड़ी जायेगी, यहां की उपेक्षा कतई बर्दाश्त नहीं की जायेगी, सरकारों की आंखें अगर नहीं खुलीं तो यहां का असंतोष विकराल रूप धारण कर सरकारों को हिलाने की ताकत भी रखता है, जैसा यहां के बहादुर लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ करके दिखाया है।