भट्टा-पारसोल आग में जल रहा है. बर्बर मायावती सरकार ने किसानों की आवाज पुलिसिया जुल्म के सहारे जिस तरह दबाने का प्रयास किया उससे टप्पल की याद फिर से ताजा हो आई जब आजादी के जश्न की पूर्व संध्या पर उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार ने तीन किसानों को गोलियों से भून दिया दिया था। ये किसान अलीगढ़ जिले के टप्पल कस्बे में जे.पी समूह के हाईटेक सिटी से अपनी जमीन बचाने के लिए आन्दोलन कर रहे थे। लेकिन आजादी के दिन टप्पल में पिपली लाइव फिल्मी नहीं, उसका वास्तविक नजारा था। मायावती सरकार बिल्डरों के हाथ बिकी हुई है और निकम्मी सरकार किसानों का दमन कर अपना उल्लू सीधा करने में लगी है. राहुल गांधी भी किसानों के नाम पर नौटंकी करने में ही लगे हुए हैं. देश में हजारों स्थान पर किसान अपनी भूमि बचाने के लिए संघर्षरत है। देश की अदालतों में भुगतान एवं मुआवजे की दर को लेकर लाखों मुकदमे चल रहे हैं।
साम्यवादी चीन में भी 60 हजार किलोमीटर से भी लम्बा हाईवे बन चुका है, लेकिन एक भी किसान को गोली से नहीं मारी गई है। यहा सैकड़ों किलोमीटर में ही सैकड़ों किसान गोलियों से भून डाले गए हैं। सिंगूर, नन्दीग्राम, दादरी, गुड़गांव में विकास के नाम पर किसानों को लहूलुहान करने का ही काम किया है. मेरा सवाल यह है कि सरकार विकास के नाम पर और कितने किसानों की बलि लेगी-सरकार को इसका जवाब देना ही होगा.
आज देश की लगभग एक लाख हैक्टेयर जमीन 300 से अधिक सेज एवं अन्य लाभकारी परियोजनाओं के लिए देशी-विदेशी धनपतियों को स्थांनातरित कर दी गई है। गरीब किसानों की भूमि इन धनपतियों को स्थांनातरित होने में सरकारें बिचैलियों की भूमिकाए निभा रही है। सरकार सार्वजनिक उदेश्य से निजी जमीन के अधिग्रहण के सिद्धान्त से मुनाफे के लिए जमीन अधिग्रहण सिद्धान्त की और बढ़ रही है।
जमीन अधिग्रहण करते समय सबसे मूलभूत तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है. किसान चाहे दिल्ली का हो या बलिया का-उसका योगदान समान होता है. किसान की देषभक्ति यही है कि वह खूब अनाज पैदा करे. हमारे किसान जमकर अनाज पैदा भी करते हैं लेकिन फिर भी देष में सबसे खराब स्थिति उन्हीं की है. काॅरपोरेट भू-माफियाओं की नजरें कमजोर किसानों की जमीन पर है. फिर मुआवजा तय करते वक्त सरकार भेदभाव क्यों करती है. 1894 का जमीन-अधिग्रहण कानून भारतीयों का दमन करने के मकसद से अंग्रेजों ने बनाया था. लेकिन अंग्रेजों ने भी इस कानून का इतना दुरूपयोग नहीं किया जितना कि बर्बर और निकम्मी मायावती सरकार ने. होता यह है कि दिल्ली के नजदीक रहने वाले किसान मिले मुआवजे का सही तरीक से इस्तेमाल नहीं कर पाते और और दूरदराज के गांव के किसान को सरकार मुआवजे के नाम पर झुनझुना पकड़ा देती है. दोनो ही गलत है. गांव का जमींदार भी बड़े षहरों में आकर छोटी नौकरी करता है. उसकी सामाजिक हैसियत में काफी गिरावट आ जाती है. जिन किसानों की जमीन सरकार छीन लेती है वे भी नक्सलवाद का दामन थामकर बंदूक उठा लेते हैं.
सरकार को किसानों से जमीन लेते वक्त यह तय करना चाहिए कि जमीन किस मकसद से लिया जा रहा है. जमीन अधिग्रहण की न्यूनतम और अधिकतम मात्रा भी निष्चित होनी चाहिए. ग्रेटर नोएडा में फार्मूला-वन कार रेस के मैदान के लिए एक हजार एकड़ भूमि की आवश्यकता थी, दोगुनी भूमि कंपनी ने ले ली. 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल सरकार ने हुगली जिले में जी.टी रोड़ और मेन ईस्टर्न लाइन के बीच महत्वपूर्ण स्थल पर 750 एकड़ जमीन बिरला समूह की आटोमोबाइल फैक्टरी के लिए ली। पिछले 50 वर्षों में वह समूह 300 एकड़ जमीन का ही उपयोग कर पाया, 450 एकड़ जमीन यो ही बेकार पड़ी रही। इतने बड़े रकबे की न तो कृषि के लिए इस्तेमाल हुई और न ही उद्योगों के लिए। इसे रोका जाना चाहिए.
एक बड़ा सवाल मजदूरों और दूसरे कामगारों का भी है जो किसान के खेत पर निर्भर करते हैं. पुनर्वास के लिए नीति बनाते वक्त उनके हितों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए.
........................लेखक समाजवादी पार्टी के नेशनल सेक्रेटरी हैं